प्रदेश में दिखा देश में दिखेगा ‘की आस संजोए नीतीश दिल्ली की राह पर

राज खन्ना'प्रदेश में दिखा देश में दिखेगा की आस संजोए नीतीश कुमार दिल्ली पहुंचे हैं।तीन दिनों की अपनी इस यात्रा के दौरान विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश में वे विपक्षी नेताओं से मुलाकातें करेंगे। 2024 के मद्देनजर उनके साथ रणनीति बनाएंगे। उन्हें भरोसा है कि एकजुट विपक्ष को भारी सफलता मिलेगी। विपक्षी खेमे में जुड़ने के साथ नीतीश कुमार भाजपा को उखाड़ फेंकने के अपने संकल्प को लेकर काफी मुखर हैं। अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के पचास सीटों पर सिमट जाने का वो दावा कर रहे हैं। समर्थक भी काफी उत्साहित हैं। पटना में उनसे तेलांगना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव भेंट कर चुके हैं। दिल्ली के बाद गैर भाजपा शासित राज्यों में पहुंचने की भी नीतीश की योजना है।

पीएम की कुर्सी का सपना पुराना ! मीडिया का एक हिस्सा नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश को जब - तब हवा देता रहा हैं। 3 और 4 सितंबर को पटना में जद (यू) की प्रांतीय और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान समर्थकों ने नीतीश के पक्ष में खुलकर माहौल बनाया। नीतीश भी भाजपा पर काफी आक्रामक थे। 2012 में उनके भाजपा से पहली बार अलगाव की वजह ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी थी। वो गठबंधन सरकारों का दौर था। अटल जी स्वास्थ्य कारणों से नेपथ्य में जा चुके थे। 2009 की पराजय के बाद आडवाणी जी रेस के बाहर थे। नीतीश के लिए अगुवाई का ये बेहतर समय था। फिर अचानक नरेंद्र मोदी के सामने आ जाने से उनका सपना टूट गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को अकेले ही मैदान में उतरना पड़ा। इस चुनाव में सिर्फ दो सीटों पर उनकी जीत और भाजपा के स्पष्ट बहुमत ने उनके लिए बिहार में रुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था।

नीतीश भी राजनीति के मौसम विज्ञानी राम विलास पासवान की ही तरह नीतीश कुमार को भी राजनीति का मौसम विज्ञानी माना जाता है। एक दशक के अंतराल पर उन्हें दिल्ली में बदलाव की आहट महसूस हो रही है। जाहिर है कि इस बदलाव के लिए जरूरी ताकत अकेले किसी विपक्षी दल के पास नहीं हैं। चंद्रशेखर राव,ममता बनर्जी,शरद पवार के बाद अब नीतीश कुमार विपक्षी एकता की कोशिशों से जुड़ गए हैं। फिलहाल इन सभी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा है। इस दिशा में एक कोशिश शरद पवार ने की थी।उसमें कुछ हासिल होना दूर , उलटे शिव सेना की टूट के साथ महाराष्ट्र की महाविकास अघाडी सरकार ही चली गई। ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्षी एकता प्रदर्शन की एक अन्य पहल की। दिलचस्प है कि आदिवासी द्रोपदी मुर्मू के सामने आते ही खुद ममता बनर्जी अपने उम्मीदवार को लेकर बीच चुनाव पछताती दिखीं। बिखराव का सिलसिला उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी जारी रहा। फिलहाल शरद पवार और ममता बनर्जी विपक्षी एकता के सवाल पर आमतौर पर चुप्पी साधे हुए हैं। अरविंद केजरीवाल का अलग रास्ता है। मायावती की फौरी चिंता उत्तर प्रदेश में फिर उठ खड़े होने की है। इन दिनों चंद्रशेखर राव और नीतीश कुमार ही इस मुद्दे पर मुखर हैं।

बुरे दौर में भी कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजरते हुए भी कांग्रेस ही विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी है। चार सितंबर को उसने महंगाई के खिलाफ दिल्ली में आयोजित हल्ला बोल रैली के जरिए भारत जोड़ों यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार की। विपक्षी दलों की समस्या है कि विपक्ष को जोड़ने के अभियान में कांग्रेस को साथ लेने के सवाल पर फिलहाल वे एक राय नहीं दिखते। जद (यू) की राय में बिना कांग्रेस और वाम मोर्चे के विपक्षी एकता का कोई मतलब नहीं। दूसरी तरफ चंद्रशेखर राव के विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं है। उधर ममता बनर्जी कांग्रेस और वाम मोर्चे दोनो से दूरी का कोई भी संदेश देने में नहीं चूकतीं। जाहिर तौर पर इसकी दो वजहें हैं। एक राज्यों में इन दलों का कांग्रेस से टकराव। दूसरे मोदी के सामने विपक्ष के चेहरे का सवाल। विपक्षी एकता की अगुवाई करने वाले चेहरों की ताकत अपने राज्यों तक सिमटी हुई है। राज्य की यही सीटें गठबंधन सरकार की दशा में प्रधानमंत्री पद के साथ ही सत्ता में हिस्सेदारी की मात्रा तय करेंगी। चुनाव पूर्व किसी गठबंधन का सीधा मतलब सहयोगी के लिए सीटें छोड़ना होगा। पश्चिम बंगाल में दबदबा रखने वाली ममता बनर्जी इसके लिए तैयार नहीं दिखतीं। यही स्थिति तेलांगना में चंद्रशेखर राव की है। लोकसभा में सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव कांग्रेस से गठबंधन से तौबा कर चुके हैं। बिहार में कांग्रेस सरकार में साझीदार है लेकिन इस बार राजद के साथ जद (यू) के आने और 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के दयनीय स्ट्राइक रेट की वजह से गठबंधन में सीटें मिलने में उसे काफी दिक्कतें आएंगी। जिन राज्यों में कांग्रेस बेहतर स्थिति में है , वहां ऐसी ही हालत का सामना संभावित सहयोगियों को करना पड़ेगा। कांग्रेस इससे बेखबर नहीं है। इसीलिए फिलहाल अधिकाधिक राज्यों में वह अपने बूते लड़ाई की तैयारी में है। 12 राज्यों के बीच डेढ़ सौ दिनों की 3500 किलो मीटर की पदयात्रा के जरिए राहुल गांधी पार्टी की खोई जमीन की वापसी के लिए सात सितंबर से सड़कों पर निकल रहे हैं।

मोदी को चुनौती देने वाले चेहरे का विवाद मोदी को चुनौती देने वाले चेहरे पर भी विवाद है। राहुल गांधी आज भी मोदी के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर हैं लेकिन गैरकांग्रेसी विपक्ष को कांग्रेस या राहुल की अगुवाई कुबूल नहीं है। 2014 और 2019 के चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की दुर्गति ने खुद उनके दल के अनेक नेताओं का मोहभंग किया है। इनमें कई भाजपा या अन्य दलों से जुड़ चुके हैं, जबकि कई अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे हैं। समस्या यह है कि अन्य विपक्षी चेहरे भी फिलहाल मोदी के आसपास नहीं ठहरते। सभी की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। कोई फैसला न होने की स्थिति में विकल्प यही बचता है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव बाद के नतीजों पर छोड़ दिया जाए। वही स्थिति चुनाव मैदान में उतरने को लेकर भी हो सकती है। चुनाव पूर्व के गठबंधन नतीजों के बाद टूटते रहे हैं और नतीजों के बाद सत्ता के लिए नए गठबंधन बनते रहे हैं। फिलहाल का जो माहौल है उसमें विपक्षी एकता की बातों - मुलाकातों के बाद भी किसी साझा मजबूत चुनौती की तस्वीर नहीं उभर रही है। लंबे समय से बिहार में सिमटे नीतीश कुमार इस बहाने अपने गृहराज्य के बाहर चर्चा में भले बने रहें पर इस दिशा में उनके प्रयास भी कुछ सार्थक नतीजे दे सकेंगे, इसकी उम्मीद कम ही है।

प्रधानमंत्री की कुर्सी की उम्मीद किस भरोसे ? आखिर प्रधानमंत्री पद के दावेदार विपक्षी नेताओं की उम्मीदें किस जमीन पर टिकी है ? केंद्र की राजनीति में चार ऐसे अवसर आए जब मामूली सांसद संख्या की पूंजी रहते नेताओं को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल गई। पहली बार जनता पार्टी की टूट के बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी चरण सिंह की सरकार जिसे संसद का सामना करने का मौका ही नहीं मिला। अगला मौका वी.पी. सिंह की सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर को मिला। यह अल्पजीवी सरकार भी कांग्रेस की बैसाखी पर टिकी थी। इन दोनो प्रधानमंत्रियों की अपनी पार्टी के कुल 64 सांसद उनके साथ थे। सबसे ज्यादा भाग्यशाली देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल थे। जनता दल जिनसे ये नेता जुड़े थे , के पास 1996 में कुल 46 सांसद थे। 13 दिन की अटल बिहारी बाजपेई सरकार बहुमत साबित करने में विफल हो चुकी थी। कांग्रेस के पास 140 और भाजपा के पास 161 का संख्याबल था। अन्य भाजपा विरोधी गैरकांग्रेसी दल कांग्रेस को समर्थन को तैयार नहीं थे। तुरंत मध्यावधि चुनाव से बचने के लिए कांग्रेस ने पहले देवेगौड़ा की सरकार बनवाई। फिर उससे समर्थन वापस लिया। अगली लाटरी इंद्र कुमार गुजराल की खुली। इस सरकार को भी कांग्रेस ने चलने नहीं दिया और 1998 में फिर चुनाव की नौबत आ गई। देवेगौड़ा और गुजराल को भले ही कम दिनों के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली लेकिन उनकी नजीर ने कई नेताओं की आंखों में जागते हुए प्रधानमंत्री पद के सपने बो दिए।

क्या मतदाता फिर गठबंधन सरकार को तैयार ? 1989 से 2014 के बीच के 25 वर्षों में लगातार देश ने गठबंधन की सरकारों के प्रयोग देखे। वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर,नरसिंह राव, देवेगौड़ा,गुजराल, नरसिंह राव,अटल बिहारी वाजपेई और डॉक्टर मनमोहन सिंह ने इस बीच अलग अलग गठबंधनों की अगुवाई की। 2014 में 282 सीटें हासिल करके भाजपा ने स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई। 2019 में उसकी सीटें बढ़कर 303 हो गईं। दो मौके देने के बाद क्या मतदाता ने भाजपा को सत्ता से हटाने का फैसला कर लिया है ? क्या मतदाता फिर से मिली जुली सरकार के लिए मन बना चुका है ? कम से कम भाजपा के विरोधियों को तो ऐसा ही लगता है। उनकी 2024 की रणनीति इसी धारणा के इर्द गिर्द टिकी हुई है। दिलचस्प है कि कांग्रेस से इतर विपक्षी दल आश्वस्त हैं कि चुनाव पूर्व भले कांग्रेस से गठबंधन न बने लेकिन चुनाव बाद नतीजों की जो तस्वीर उभरेगी उसमें मोदी और भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस उनके समर्थन को मजबूर होगी। इसी उम्मीद में ममता बनर्जी, शरद पवार,चंद्रशेखर राव,केजरीवाल प्रधानमंत्री की कुर्सी की कतार में हैं। इसमें ताजा नाम नीतीश कुमार का जुड़ा है।अटलजी की सरकार में वे मंत्री थे। थोड़े से समय को छोड़कर तबसे लगातार वे भाजपा की मदद से बिहार के मुख्यमंत्री रहे। अब उससे पल्ला झाड़ चुके हैं। अट्ठारह वर्ष के अंतराल पर वो फिर दिल्ली का रुख कर रहे हैं। वहां विपक्षी एकता के नाम पर उस कुर्सी की संभावनाएं तलाशेंगे जिसकी हसरत वे अरसे से संजोए हैं।

मिशन विजय

Mission Vijay Hindi News Paper Sultanpur, U.P.

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