स्मृति : मुलायम सिंह यादव
जमीनी राजनीति का योद्धा
वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक विचारक राज खन्ना ने मुलायम सिंह यादव से जुड़ी बातों को आपने विचार के माध्यम से साझा किया कि
प्रशंसकों ने उन्हें नेताजी नाम दिया। राजनीतिक – सार्वजनिक जीवन की एक लंबी पारी में उन्होंने उत्तर प्रदेश के रास्ते देश की राजनीति में खास स्थान बनाया। इस मुकाम को हासिल करने में कमजोर , पिछड़े और अल्पसंख्यक खासतौर पर उनके मददगार बने , जिनकी वे उम्मीदों के केंद्र थे। वे इस मायने में खास थे कि सत्ता में रहें या विपक्ष में , उनका आम आदमी से जुड़ाव बना रहा। राजनीतिक जीवन में बढ़ती कटुता के बीच नेताजी इस लिए और भी याद किए जाएंगे कि चुनावी राजनीति में विपक्षी पाले के बड़े – छोटे तमाम नेताओं से निजी तौर पर उनके रिश्ते मधुर बने रहे। सिर्फ उनकी बीमारी के दौरान ही नहीं , अन्य अवसरों पर संसद से लेकर अनेक कार्यक्रमों के दौरान विपक्षियों के साथ उनकी बिखरी तस्वीरें लोगों को चौंकाती रही। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले मुलायम सिंह यादव ने व्यावहारिक राजनीतिक जीवन में चौधरी चरण सिंह का अनुकरण किया। राजनीतिक जरूरतों के लिहाज एक दौर में उन्होंने गठजोड़ बनाए और बिगाड़े। फिर अपनी पार्टी सपा बनाई। तीन बार दूसरों की मदद से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। फिर 2012 में जब अकेले बूते राज्य में बहुमत हासिल किया तो कुर्सी पुत्र अखिलेश यादव को सौंप दी।
1996 में केंद्र की संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन के दौरान उनके सजातीय लालू यादव और शरद यादव रास्ते में आ गए अन्यथा प्रधानमंत्री का उनका सपना पूरा हो जाता। उनके राजनीतिक सफर का टर्निंग प्वाइंट अयोध्या का राम मंदिर आंदोलन था , जिस दौरान मुलायम सिंह यादव ने खुद को सेक्युलर ताकतों के चैंपियन के रूप में पेश किया। इसने उन्हें मुल्ला और मौलाना का खिताब दे दिया। लेकिन मुस्लिम वोटों की इस ताकत के साथ मुलायम सिंह यादव के सजातीय यादव वोटों के जुड़ाव ने उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति का महत्वपूर्ण चेहरा बना दिया।
मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर 1967 में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के निकट सहयोगी राम सेवक यादव के साथ शुरू हुआ। फिर वह चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल और बाद में लोकदल से जुड़े। जनता पार्टी की टूट के मौके पर वे चौधरी चरण सिंह के खेमे में रहे। पिछड़ों की सौ में साठ हिस्सेदारी का नारा लोहिया ने दिया था। उत्तर प्रदेश की राजनीति की प्रयोगशाला में इसके सफल प्रयोग की शुरुआत चौधरी चरण सिंह ने की। मुलायम सिंह ने चौधरी साहब से इस विरासत को हासिल करने की कोशिश की। पुत्र अजीत सिंह की ओर चौधरी साहब का झुकाव देखने पर मुलायम सिंह यादव उनसे दूर भी हुए , लेकिन राजनीति की इस धारा को अपनाए रखा।
आठवां दशक मुलायम सिंह यादव की संघर्ष की राजनीति के लिए याद किया जाता है। 1980 में केंद्र के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की जोरदार वापसी हुई थी। जनता पार्टी के बिखरे टुकड़े इस दौर में राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में दस्यु उन्मूलन जैसे सवाल पर मुलायम सिंह का उनसे खुला टकराव हुआ। सत्ता से संघर्ष ने मुलायम सिंह यादव को प्रदेश की विपक्षी राजनीति का प्रमुख चेहरा बना दिया। अपने राजनीतिक आधार के विस्तार के लिए मुलायम सिंह यादव प्रदेश के शहरों से लेकर गांवों तक खासतौर पर पिछड़ों और कमजोर वर्गों के बीच खूब घूमे। मुस्लिम इलाकों में भी उन्होंने दस्तक दी। इन कोशिशों ने उन्हें दूरदराज की एक बड़ी आबादी से जोड़ दिया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह से सहज रिश्ते न होने के बाद भी मुलायम सिंह यादव जनता दल से जुड़े। 1989 में जनता दल की केंद्र के साथ उत्तर प्रदेश में भी सरकार बनी। प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम सिंह यादव और चौधरी अजीत सिंह के बीच सीधा चुनाव हुआ। मुलायम सिंह यादव ने जीत हासिल की। लेकिन वीपी सिंह और मुलायम सिंह के बीच खींचतान जारी रही। दोनो को अपनी कुर्सी के लिए दूसरे से खतरा नजर आता रहा। यही दौर था जब एक तरफ वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का अगस्त 1990 में दांव चला। उधर विहिप ने राम मंदिर आंदोलन को तेज किया।
मुलायम सिंह यादव ने इस मौके का उपयोग अपनी भविष्य की राजनीति के लिए किया। मंदिर समर्थकों को जमकर ललकारा। विवादित स्थल पर परिंदा भी पर नहीं मार सकता , जैसे भड़काऊ बयान दिए। कार सेवकों से टकराव का कोई मौका नहीं छोड़ा। 30 अक्तूबर 1990 को अयोध्या में कार सेवकों पर गोली भी चलवा दी। अनेक कारसेवक मारे गए। तात्कालिक रूप से 1991 के चुनाव में इसका मुलायम सिंह यादव ने खामियाजा भी भुगता। भाजपा की कल्याण सिंह की अगुवाई में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। फिर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। कल्याण सिंह का इस्तीफा या फिर केंद्र सरकार द्वारा सरकार की बर्खास्तगी। लेकिन इसी के साथ उत्तर प्रदेश में नए चुनाव का मार्ग प्रशस्त हो गया।
1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने सामाजिक समीकरणों का एक नया रसायन प्रस्तुत किया। बसपा से गठजोड़ के जरिए एक ओर दलित और पिछड़ों के मिलन ने भाजपा के हिंदू वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर दी , दूसरी ओर मुस्लिमों के इसमें जुड़ाव ने मुलायम सिंह यादव को प्रदेश का दूसरी बार मुख्यमंत्री बना दिया। निजी हितों के टकराव ने इस गठबंधन और सरकार को ज्यादा दिन नहीं चलने दिया। ये गठजोड़ यदि कुछ स्थायित्व और विस्तार पा जाता तो उत्तर प्रदेश के साथ केंद्र तक की राजनीति में यह अलग ही असर डाल सकता था।
1996 में मुलायम सिंह यादव को केंद्रीय राजनीति में दखल का मौका मिला। अटल जी की तेरह दिनों की सरकार के बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार की अगुवाई को लेकर खींचतान चल रही थी। इस मौके पर मुलायम सिंह यादव का भी नाम तेजी से प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए आगे बढ़ा। उत्तर प्रदेश के घटनाक्रम ने मुलायम को राष्ट्रीय राजनीति में पहचान दे दी थी। वामपंथियों सहित कई छोटी पार्टियों उनके पक्ष में थीं। उनकी सेक्युलर छवि का इसमें बड़ा योगदान था। लेकिन उनकी राह में उनके सजातीय लालू यादव और शरद यादव आ गए। आखिर में एच. डी. देवेगौड़ा की किस्मत ने साथ दिया। मुलायम सिंह यादव को देश के रक्षा मंत्री पद से संतोष करना पड़ा। बेशक मुलायम सिंह यादव को आगे यूपीए की दो सरकारों में भले हिस्सेदारी न मिली हो लेकिन गठबंधन सरकारों के दौर में केंद्र की राजनीति में मुलायम का प्रभावी दखल बना रहा।
मुलायम सिंह यादव आठ बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए। एक बार विधानपरिषद के सदस्य बने। लोकसभा के लिए सात बार। उन्होंने सपा के अन्य राज्यों में विस्तार के भी प्रयास किए। अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश पर खास ध्यान दिया। उनकी छवि पिछड़ों के एक बड़े नेता की बनी। मुसलमानों का सहयोग इसे विस्तार देता रहा। लेकिन वे यहीं नहीं रुके। उन्हें प्रदेश की लगभग नौ फीसद यादव आबादी का एकजुट समर्थन मिला। लगभग बीस फीसद मुस्लिम आबादी के बड़े हिस्से के जुड़ाव ने अन्य पिछड़ों को भी उनसे जोड़ा। निजी रिश्ते बनाने में माहिर मुलायम सिंह यादव ने अगड़ों के लिए भी पर्याप्त गुंजाइश बनाई। 2003 से 2007 के बीच उन्हें
तीसरी बार प्रदेश की अगुवाई का मौका मिला।
मुलायम सिंह यादव की खासियत रही कि हर पराजय के बाद वे नई ताकत के साथ उभरे। 2007 में उन्हें मायावती ने सत्ता से बेदखल किया। 2012 में पूर्ण बहुमत के साथ उनकी वापसी हुई। मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन की यह सबसे बड़ी कामयाबी थी। शिक्षक की नौकरी छोड़कर वह राजनीति में शामिल हुए। संसोपा के टिकट पर 1967 में पहली जीत से 2012 के बीच के 45 वर्षों के सफर के दरम्यान उन्होंने काफी उतार – चढ़ाव देखे। लेकिन 2012 की इस बड़ी जीत के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी अखिलेश यादव को सौंपी। क्या यह मुलायम सिंह यादव के राजनीति से सन्यास का संदेश था ? यकीनन नहीं ! लेकिन दिग्गज राजनेता मुलायम यहीं चूक गए। 2014 से केंद्र की राजनीति का पूरा परिदृश्य ही बदल गया। गठबंधन की राजनीति पर विराम लग गया। उधर पिता की गद्दी संभालने वाले पुत्र को पिता का एक सीमा के बाद दखल खलने लगा। मुलायम सिंह यादव असली अखाड़े के भी पहलवान रहे हैं। उनका चरखा दांव काफी चर्चित रहा है। लेकिन इस बार राजनीति के अखाड़े में बूढ़े – बीमार मुलायम के सामने जवान बेटा था। रक्त संबंध,उम्र , बिगड़ती सेहत , सभी उनका रास्ता रोके खड़े थे। बेटे से वैसे भी बाप हारते रहें हैं। वे भी हारे। बेशक इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी पर पकड़ खो दी। लेकिन पार्टी पर उनके विशाल कद की छाया बनी रही। विपक्षियों के बीच भी उनकी स्वीकार्यता ने उन्हें प्रासंगिक बनाए रखा। लंबे अरसे से उत्तर प्रदेश की राजनीति के वे एक अनिवार्य पक्ष थे। उनकी कमी लंबे समय तक महसूस की जाएगी।